वर्तमान में व्याप्त व्यक्तिगत,पारिवारिक और सामाजिक सभी विपत्तियों और समस्याओं के कारणों को खोजें तो प्रतीत होगा कि आस्था-संकट ही उनका मूल कारण है | यों समस्याओं का रूप भिन्न- भिन्न दिखाई देता है इसलिए उनके कारण भी अलग-अलग दीखते है | जैसे वृक्ष का तना,शाखाए और फूल तोड़कर देखे जायें तो अलग-अलग प्रतीत होगे | बनावट के आधार पर इन सब में भी अन्तर होगा लेकिन गहरी दृस्टि से समझने पर सभी चीजें वृक्ष के बीज और जड़ो से विकसित हुई स्पष्ट लगेगी | समस्यायों के स्वरुप भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई दें परन्तु वे सभी मनुष्य से सम्बन्धित है तो उनका कारण ही मनुष्य में देखना पड़ेगा |
परिवार के भावनात्मक निर्माण में ये कहते सुनते रहने समझाने-बुझाने की भी आवश्कता पड़ती है और सत्परामर्श देते रहने की भी उपयोगिता है पर एक बात गांठ बाँध कर रखनी चाहिए की जहाँ व्यक्तियों के निर्माण का प्रश्न है वहाँ वातावरण का प्रभाव ही पहली बार में ही उसे स्वीकार कर लेते है जो आनाकानी करते हो उन पर दबाव न डाला जाये अपने विवेक से काम लेने दिया जाये तो कुछ ही दिनों मे स्वेच्छापूर्वक स्वयं ही उस सत्प्रचलन में सम्मिलित हो जाते है | अलग थलग पड़े रहेना भी मनुष्य के लिये कम कष्टकर नही होता, समूह के साथ चलने में सहज प्रवृति स्वयं ही सहमत होती है | भले ही इसमे कुछ देर लगे |